Sunday, July 1, 2007

BERUKHI . . .

ना हमने बेरुखी देखी न हमने दुश्मनी देखी,
तेरे हर एक सितम मे हमने कितनी सादगी देखी,
कभी हर चीज़ मे दुनिया मुकम्मल देखते थे हम,
कभी दुनिया कि हर एक चीज़ मे तेरी कमी देखी,
न दिन मे रोशनी देखी, न शब मे चान्दनी देखी,
टेरी उल्फ़त मे हुम्ने इस कदर भी ज़िन्दगी देखी,
वो क्या एह्द-ए-वफ़ा देगे? वो क्या गम की दवा देगे?
ज़िन्होने देख कर भी इश्क़ मे जन्नत नही देखी?
यहा हुम दिल जलाकर के किया करते है शब रोशन,
वहा एक तुम हो जिसने देखी भी तो आग़ ही देखी,
'कसक' हर बार सोचा है गिला करना न भूलेगे,
मगर हर बार भुले है वो आखे जब भी नम देखी...
न हमने बेरुखी देखी , न हमने दुश्मनी देखी

No comments: